कर्बला की वो शाम जबहजरत अब्बास के सामने था दरिया, लेकिन नहीं पिया एक भी बूंद पानी

कर्बला की वो शाम जब हजरत अब्बास के सामने था दरिया, लेकिन नहीं पिया एक भी बूंद पानी
मुहर्रम महीना सिर्फ इस्लामी वर्ष की शुरुआत नहीं है; यह न्याय, बलिदान और वफादारी की इतिहास की घटनाओं को भी याद दिलाता है। मुहर्रम के दिन सिर्फ हजरत इमाम की स्मृति नहीं की जाती। बल्कि, इस दिन हजरत अब्बास, हजरत इमाम हुसैन के भाई को भी याद किया जाता है।

मुहर्रम का महीना सिर्फ मुसलमानों के लिए यह वर्ष की शुरुआत नहीं है; यह न्याय, बलिदान और वफादारी की घटनाओं को याद दिलाता है। वैसे भी कर्बला की लड़ाई के बारे में कई कहानियां हैं। जितनी बार भी आप इन कहानियों को पढ़ते हैं, वे आपके दिल पर उतनी ही प्रभाव डालती हैं। हजरत अब्बास की कहानी भी ऐसी है। हजरत इमाम हुसैन (रजियल्लाहु अन्हु) के सौतेले भाई थे हजरत अब्बास।

प्यास और साजिश के बीच इंसानियत की जंग
यह कहानी 680 ई. की 10वीं मुहर्रम से पूर्व की है। उस दिन कर्बला की गर्म जमीन पर इमाम हुसैन का एक छोटा सा खेमा यजीद की हजारों की सेना से घिरा हुआ था, और हुसैन के लोगों के लिए फरात नदी का पानी रोक दिया गया था। महिलाओं का हाल भी प्यास से बेहाल था, और बच्चों की जुबान भी प्यास से चटपटा रही थी।

आज भी जिंदा है 'सक्का-ए-कर्बला' की याद
इतिहास में हजरत अब्बास को "सक्का-ए-कर्बला" कहा गया था, जिसका अर्थ है कि वह कर्बला में प्यासों के लिए पानी लाया था। उन्हें भी "बाब-उल-हवाइज" कहा जाता है, जिसका अर्थ है "जरूरतमंदों का दरवाजा।" मुहर्रम के जुलूस में हर साल अलम (झंडा) उठाया जाता है और कहीं मश्क की झांकी बनाई जाती है।

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